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06 July 2017

~~रह जाना~~

आसान नहीं;
अबोल, निशब्द, अनजान रह जाना,
जैसे आसान नहीं, होता, रह जाना,
अस्तित्व का, शब्द का बच जाना,
होता है बहुत कुछ कहन को,
पर, सुनन को भला माना जाना.

आसान नहीं;
अबोल, निशब्द, अनजान रह जाना,
जैसे आना जगत में, रह जाना,
बिन बताए, जीवन बुहार जाना,
होता है बहुत मनमाना करन को,
पर, कहा और का माना जाना.

आसान नहीं;
अबोल, निशब्द, अनजान रह जाना,
जैसे रेत का जल को लील जाना,
बादल से गिर बूंद का जलन न मिटा पाना,
आसान नहीं, शब्द का,
कोलाहल से, बच जाना.

आसान नहीं;
अबोल, निशब्द, अनजान रह जाना,
निज को तज, दूजे को सराहना,
अहं को सहेजना, छोड़, जगत को संवारना.

आसान नहीं; आसान नहीं!

28 July 2016

स्व: बानी: आपका यूँ चले जाना, नीलाभ जी!

स्व: बानी: आपका यूँ चले जाना, नीलाभ जी!

आपका यूँ चले जाना, नीलाभ जी!






नीलाभ जी से वो आख़िरी संवाद जिसमें जगी थी एक और उम्मीद!

नीलाभ जी,
आपसे इलाहाबाद में सन 2002 के आधे बीत जाने के बाद पहली मुलाकात हुई थी. अपने पापा के गिरते स्वास्थ्य के चलते दिल्ली के सारे कामों और व्यस्तताओं को परे रखकर इलाहाबाद आई तो, लेकिन किताबों की दुनिया से जुड़ाव नहीं टूटने दिया. और उसी सिलसिले में पहली बार आपसे आपके घर पर, सामने वाले बरामदे में मिलना हुआ. और आपने मेरा परिचय लेने के बाद नीलाभ प्रकाशन में संपादकीय कामों में हाथ बंटाने की ज़िम्मेदारी दे दी. उन छह महीनों में आपसे पुस्तक प्रकाशन के तमाम पहलुओं से जुड़ी खूब सारी बातें सीखीं और साथ ही अपने काम के प्रति इस कदर समर्पित एक अनुवादक को इतने नज़दीक से देखने का मौका भी पाया...
वह दौर अरुंधती राय  के 'गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स' के अनुवाद के पहले ड्राफ्ट के नामंजूर होने पर दूसरे ड्राफ्ट की तैयारी का था. और आप दिल्ली से वापस आकर फिर पूरे जोश से उसके अनुवाद में जैसे जुटे वो बाद के वर्षों में एक अनुवादक के तौर पर मेरे लिए प्रेरणा का सबब रहा और आज भी है! किस तरह आप एक-एक शब्द को सही रूप देने की कोशिश करते और उसके शीर्षक के लिए कितने विचार-विमर्श के दौर चले, वो भी अपने आप में एक अनुभव रहा.
अपने काम के प्रति इस कदर समर्पित किसी साहित्यिक हस्ती को पास से देखने का यह मेरा पहला अवसर रहा. चूँकि मैं एक नौकरीपेशा मध्यम वर्गीय परिवार से हूँ तो मेरे लिए साहित्यिक जगत की वो सारी व्यस्तताएं अजब सा अनुभव करातीं. लेकिन आपके साथ कुछ और बातों को भी सीखने का या कहूँ साहित्यिक सलीके को समझने का मौक़ा भी मिला. वो था, इस फ़ानी दुनिया से जा चुके एक बड़े साहित्यिक कलमकार की पीछे छूट चुकी अधूरी या अप्रकाशित रचनाओं को सँभालने की ज़िम्मेदारी का असल माने! अश्क जी और मंटो की उन सारी रचनाओं की फाइलों की सफाई-छंटाई के बीच इस उपभोक्तावादी दुनिया के समझ में आने लायक़ कुछ छापने की छटपटाहट क्या थी, और क्यों थी वो बहुत बाद में समझ आया. कई बार आपको इनकी प्रकाशन योजनायें बनाते और उसकी तैयारी करते देखा... खैर...
आज आपको भी विदा हुए कई दिन हो चुके और मैं अब तक आपसे हुए इस आख़िरी संवाद पर अटकी हुई हूँ... अब आपकी इस विरासत या आपके अधूरे कामों का क्या होगा? (हो सकता है, ऐसा सभी रचनाकारों के साथ होता हो लेकिन मेरा परिचय तो आपसे था न!) फिर आपके पास जो ज्ञान था, जानकारियां थीं और उनसे 'इलाहाबादी' बोली/भाषा को जो लाभ हो सकता था, उसके बारे में सोचते हुए मैं परेशान होने लगी हूँ.
एक पूरी पीढ़ी है जो अपनी देशज भाषाओं से दूरी के चलते अपनी जड़ों, अपनी मूल पहचान से अनजान होती जा रही है. सच उस दिन, आपसे यह जानकर इतनी ख़ुशी हुई थी कि चलो, मेरे जैसे अज्ञानी को कुछ तो पता चलेगा उन शब्दों के बारे में जिनको बचपन में कभी सुना करते थे और जिनको अब सुनने-बोलने के लिए तरसा करते हैं. संभव है कि कहीं और इस दिशा में कुछ काम हुआ हो. लेकिन आपके साथ एक साहित्यिक परम्परा भी तो थी जिससे हम जैसे भाषा जगत के नौसिखियों को बहुत-कुछ सीखने की लालसा थी!
आपने मुझे हिंदी वर्तनी से जुड़ी कई छोटी-बड़ी बातों से दो-चार करवाया ही, और ख़ुद लिख कर कई बार मात्राएँ और उनके भिन्न-भिन्न उपयोग और महत्त्व के बारे में समझाया भी. (कितना सीख पाए वो अलग बात रही!) फिर उर्दू सीखने की कोशिश में भी आपने पूरी मदद की. वो तो समय की कमी के कारण बीच में छूट गया! फिर आपने फ़ेसबुक पर कुछ उर्दू पाठों की शुरुआत की पहल भी की थी लेकिन... उस नाते आप मेरे लिए पुस्तक प्रकाशन और भाषा-जगत के विद्यालय के एक गुरु सरीखे भी रहे. जबकि नई पीढ़ी से कुछ नया सीखने में आप भी कभी पीछे नहीं रहे. जब भी, जिससे भी, कुछ सीखने को मिला, आपने सीखा ही. तकनीक से जुड़ी कितनी बातों पर आपसे बात हुआ करती (उस दिन भी हुई!) और नीलाभ प्रकाशन में कंप्यूटर लाने की बात भी तभी हुआ करती थी. बाद में क्या हुआ वो बाद की बात रही...
दिल्ली आने के बाद आपसे गाहे-बगाहे मुलाकात होती रही और आप हर बार कुछ नई योजनाओं की बात ज़रूर बताते. चूँकि अनुवाद हमारा साझा विषय होता तो आपसे उसी पर ज़्यादा बात होती... और मैं कुछ न कुछ सीखने की जुगत में खूब ध्यान से सुना करती.
बहुत सी बातें इन दिनों याद आ रही हैं... और वो इलाहाबाद में नीलाभ प्रकाशन, आपसे मिलने के लिए आने पर देखते ही नींबू वाली चाय का ऑर्डर देना, वो भी.
लेकिन आपका यूँ चले जाना, नीलाभ जी, उन न पूरे हो पाए, अधूरे छूटे कामों को लेकर चिंता में डाल गया. क्या उन्हें अंजाम तक पहुँचाया जायेगा, क्या आपकी या आप सरीखी हस्तियों के साथ जो भाषा-ज्ञान की धरोहर चली गई, उसे लेकर कभी हम चेतेंगे और आज जो हमारे साथ हैं उनकी थाती को संभाला जायेगा, क्या अनुवाद के ज़रिये अन्य या विदेशी भाषाओं की संपदा को सँभालने के जतन के साथ देशज भाषाओं की ओर भी तवज्जो दी जायेगी? सवाल बहुत से हैं परेशान होने को, नीलाभ जी, लेकिन आपकी कविता का ही एक अंश याद आ रहा है, जो लिखा जा चुका उसे संजोने को, समझने को!

इसीलिए मैं चाहता हूँ
जो भी मेरे शब्दों को पढ़े और जाने
जैसे आदमी अपनी पत्नी को
निरन्तर उसके साथ रह कर जानता है
सच्ची बात कह देने के बाद लोगों का अविश्वास सह कर
जैसे आदमी कटुता को
पहचानता है
वह लगातार अपने ही लोगों के
और अधिक निकट हो।
निकट हो। उल्लसित हो। और संगीतमय।